Thursday, September 19, 2024
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 Mira Bai मीरा बाई- श्रीकृष्ण की परम भक्ता – भक्तिऔर त्याग का अनुपम उदाहरण – 1

Mira Bai मीरा बाई

मीरा बाई– जब जब भगवान श्री कृष्ण के भक्तों का नाम लिया जाएगा तो सबसे ऊपर श्री कृष्ण की अन्नयन भक्त मीरा बाई का नाम लोग बड़ी श्रद्धा से लेंगे। मीरा बाई का बचपन भक्ति के प्रति उनकी गहरी प्रेम और भक्ति के साथ गुजरा, और वे बचपन से ही भगवान कृष्ण की विशेष भक्त बन गईं।

Mira Bai मीरा बाई-जीवन परिचय

मीराबाई का जन्म 1498 ई. में मेड़ता के राठौड़ राव दूदा के पुत्र रतन सिंह के यहां कुड़की गांव, मेड़ता (राजस्थान) में हुआ था। मीरा के पिता रतनसिंह राठौड़ एक जागीरदार थे तथा माता वीर कुमारी थी। मीरा का पालन पोषण उसके दादा-दादी ने किया। उनकी दादी भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त थी और ईश्वर में अत्यंत विश्वास रखती थी।

मीराबाई

मीरा बाई के जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू में यह भी शामिल है कि वे अपने बालिका दिनों से ही गिरधर गोपाल, अर्थात् भगवान कृष्ण के प्रति अत्यंत प्रेम और भक्ति रखती थीं। उन्होंने अपनी बचपन की कहानी में भगवान कृष्ण को अपने वर के रूप में माना और उनके साथ अपनी आत्मा का संयमन किया।

मीराबाई की कविताओं और भजनों में इस भाग्यशाली दूल्हे और दुल्हन के प्रेम का विवादित और भगवान कृष्ण के साथ उनके दिव्य विवाह का चित्रण किया गया है। उनके काव्य में वे अपने प्रेम और विश्वास का इजहार करती हैं, जिसे उनकी भक्ति और धार्मिकता की महत्वपूर्ण भाग माना जाता है।

Mira Bai मीरा बाई का विवाह

मीराबाई का विवाह 1516 ई. में मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज सिंह के साथ हुआ था , लेकिन वे राजमहलों और शासन की दुनिया के बजाय अपनी आत्मा को भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित करना चाहती थीं। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र भोजराज सिंह ने मेवाड़ की सिंहासनी गद्दी परआरूढ़ हुवे ।

Mira Bai मीरा बाई

भोजराज सिंह 1521 में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के खिलाफ खानवा के युद्ध में शामिल हुए, जिसे खानवा युद्ध के रूप में जाना जाता है, और युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुवे।। यह घटना मीराबाई के जीवन एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके बाद वे भगवान कृष्ण की भक्ति में और अधिक लीन हो गईं और उन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा उनके भगवान श्री कृष्ण के भक्ति और साहित्य को समर्पित किया।

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मीरा बाई ने अपनी भक्ति और प्रेम का अभिव्यक्ति काव्य, भजन, और पद्य रूप में किया। उनके लिखे गए कृष्ण भक्ति गीत और भजन आज भी लोगों के बीच बड़े प्रसिद्ध हैं। उनकी रचनाओं में वे अपने भगवान के साथ की अद्वितीय भक्ति का इजहार करतीं थीं।

मीराबाई की रचनाएँ भक्ति साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से में आती हैं और उनके कृष्ण भक्ति का प्रतीक हैं। उनके गीत, पद, और भजन भगवान कृष्ण के प्रति उनके अद्वितीय प्रेम और भक्ति को व्यक्त करते हैं।

मीराबाई की रचनाओं में वे अकेली और भगवान के साथ की अपनी आत्मा की बात करती हैं और धार्मिक तात्त्विकता के माध्यम से भगवान के प्रति अपनी अद्वितीय भक्ति का इजहार करतीं हैं। उनकी रचनाएँ साहित्य, संगीत, और भक्ति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं और आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

मीरा बाई की रचनाएँ विभिन्न रागों और तालों में हैं और उनमें उनकी अद्वितीय भक्ति और प्रेम का प्रतीक छुपा होता है। उनका साहित्य साधकों के लिए मार्गदर्शक और आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए एक स्रोत है।

मीरा बाई का जीवन और उनके काव्य धार्मिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। वे एक महिला कल्याणकारी भक्ति संत के रूप में भी मानी जाती हैं, और उनकी भक्ति और साहित्य आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं।

मीरा बाई

कृष्ण भक्ति के खिलाफ प्रयास

मीरा बाई के जीवन में उनके परिवार और समाज के कुछ लोगों ने उनकी कृष्ण भक्ति के खिलाफ प्रयास किए थे। विक्रमादित्य, जो मीराबाई के देवर थे, उनकी भक्ति के प्रति असहमति रखते थे और उन्होंने कई प्रयत्न किए थे ताकि मीराबाई अपने भगवान कृष्ण के प्रति अपना साधु-संतों के साथ भक्ति कार्य छोड़ दें।

विक्रमादित्य ने मीराबाई को समझाने के लिए उनके साथ कई बार वाद-विवाद किये और उन्हें समाज की सामाजिक नियमों का पालन करने के लिए दबाव डाला। हालांकि विक्रमादित्य ने कई बार मीराबाई के कृष्ण-भक्ति के खिलाफ कदम उठाए, मीराबाई ने अपने प्रेम और भक्ति में दृढ़ रूप से पकड़ बनाई रखी।

मीरा बाई मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन चली गई।

मीरा बाई

मीरा बाई की मृत्यु

इतिहासकारों के अनुसार उनके जीवन के अंतिम वर्षों में द्वारका में चली गई। । 1547 ईस्वी में वह गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में भक्ति के लीन रहने लगीं और वहीं विलीन हो गईं। उनकी मृत्यु की जानकारी एक प्रामाणिक तथ्य के रूप में नहीं है, लेकिन वे उन अद्वितीय भक्ति और साहित्य की विशेष धारणा करती थीं, जो आज भी उनकी यादों में जिंदा है।

मीराबाई की मृत्यु के बाद उनके भक्ति संदेश और काव्य उनके उन्नत सोच और आध्यात्मिकता के प्रति लोगों की जागरूकता और प्रेरणा का स्रोत बने। उनके कृष्ण भक्ति संदेश का महत्व आज भी बना हुआ है और वे एक महत्वपूर्ण संत और कवियित्री के रूप में याद की जाती हैं।

कृष्ण-भक्ति में आसक्त मीरा बाई की रचनाएँ निम्नलिखित है-

  • राग गोविंद
  • गीत गोविंद
  • नरसी जी का मायरा
  • मीरा पद्मावली
  • राग सोरठा
  • गोविंद टीका

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